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तं सु॒प्रती॑कं सु॒दृशं॒ स्वञ्च॒मवि॑द्वांसो वि॒दुष्ट॑रं सपेम। स य॑क्ष॒द् विश्वा॑ व॒युना॑नि वि॒द्वान्प्र ह॒व्यम॒ग्निर॒मृते॑षु वोचत् ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ supratīkaṁ sudṛśaṁ svañcam avidvāṁso viduṣṭaraṁ sapema | sa yakṣad viśvā vayunāni vidvān pra havyam agnir amṛteṣu vocat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। सु॒ऽप्रती॑कम्। सु॒ऽदृश॑म्। सु॒ऽअञ्च॑म्। अवि॑द्वांसः। वि॒दुःऽत॑रम्। स॒पे॒म॒। सः। य॒क्ष॒त्। विश्वा॑। व॒युना॑नि। वि॒द्वान्। प्र। ह॒व्यम्। अ॒ग्निः। अ॒मृते॑षु। वो॒च॒त् ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:15» मन्त्र:10 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसका ज्ञान और उपासना आवश्यक है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अविद्वांसः) विद्या से रहित जन (तम्) उस (सुप्रतीकम्) सुन्दर कर्म्म किये जिसने तथा (सुदृशम्) योगाभ्यास से देखने योग्य वा उत्तम प्रकार दिखाने और (स्वञ्चम्) अच्छे प्रकार जानने वा प्राप्त करानेवाले (विदुष्टरम्) अत्यन्त विद्वान् ईश्वर को नहीं विशेष करके जानते और न उपासना करते हैं, उनको हम लोग (सपेम) शाप देते हैं और जो (विद्वान्) प्रकट विद्याओं से युक्त (अग्निः) अग्नि के समान स्वयंप्रकाशित हुआ (विश्वा) सम्पूर्ण (वयुनानि) प्रज्ञानों और (अमृतेषु) नाशरहित कारण जीवों में (हव्यम्) देने योग्य विज्ञान को (प्र, वोचत्) अत्यन्त कहता है (सः) वह हम लोगों को (यक्षत्) प्राप्त करावे ॥१०॥
भावार्थभाषाः - जो परमात्मा को नहीं जानते और उसकी आज्ञा के अनुकूल आचरण नहीं करते हैं, उनको धिक् है धिक् है और जो उसकी उपासना करते हैं, वे धन्य हैं। और जो हम लोगों के लिये वेदद्वारा सम्पूर्ण विज्ञानों का उपदेश देता है, उसी की हम सब लोग उपासना करें ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तज्ज्ञानोपासने आवश्यके भवत इत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! येऽविद्वांसस्तं सुप्रतीकं सुदृशं स्वञ्चं विदुष्टरं न विजानन्ति नोपासन्ते तान् वयं सपेम। यो विद्वानग्निर्विश्वा वयुनान्यमृतेषु हव्यञ्च प्र वोचत् सोऽस्मान् यक्षत् ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) (सुप्रतीकम्) शोभनानि प्रतीकानि कृतानि येन तम् (सुदृशम्) योगाभ्यासेन द्रष्टुं योग्यं सुष्ठु दर्शकं वा (स्वञ्चम्) यः सुष्ठ्वञ्चति जानाति प्रापयति वा तम् (अविद्वांसः) (विदुष्टरम्) अतिशयितमीश्वरम् (सपेम) आक्रुश्येम (सः) (यक्षत्) सङ्गमयेत् (विश्वा) सर्वाणि (वयुनानि) प्रज्ञानानि (विद्वान्) आविर्विद्यः (प्र) (हव्यम्) दातुमर्हं विज्ञानम् (अग्निः) अग्निरिव प्रकाशमानः (अमृतेषु) नाशरहितेषु कारणजीवेषु (वोचत्) वक्ति ॥१०॥
भावार्थभाषाः - ये परमात्मानं नो जानन्ति तदाज्ञानुकूलं नाचरन्ति तान् धिग्धिग्ये च तमुपासते ते धन्याः। योऽस्मान् वेदद्वारा सर्वाणि विज्ञानान्युपदिशति तमेव वयं सर्व उपासीमहि ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे परमेश्वराला जाणत नाहीत व त्याच्या आज्ञेनुसार वागत नाहीत त्यांचा धिक्कार असो व जे त्याची उपासना करतात ते धन्य होत. जो आम्हाला वेदाद्वारे संपूर्ण विज्ञानाचा उपदेश देतो त्याचीच आम्ही सर्वांनी उपासना करावी. ॥ १० ॥